Ashish kumar
If you ever feel like you are not meant to do what you are doing, then you must read this.
जब नन्हे मुन्ने क्यूट से बच्चे हुआ करते थे, बिन अक्ल वाले, मासूम से...तब पतंगबाज़ी का मौसम आते ही बल्ले किसी कोने में दीमक लगने फेंक दिए जाते थे और गेंद अपना आशियाना पलंग के नीचे बसा लेती थी।
मुझे यह बिलकुल अच्छा नही लगता था क्योंकि जब तो दिशाएं भी क्रिकेट की पोज़िशन से याद रहती थी...मिड-ऑन, कवर, इत्यादि....खैर लोकतंत्र का पहला पाठ वहीं से सीखने को मिला...'मेजोरिटी विन्स'। तब शाम को बाहर निकलना उतना ही ज़रूरी होता था जितना कि आजकल एफबी चैक करना।
शुरुआती दौर में जब तक पैसे इकट्ठे करके माँजा, डोरी और पतंग नही आती थी, तब तक गली में रहकर पेचे लड़ने का इंतज़ार करते थे और 'काटी बो' की आवाज़ सुनते ही 'पतंग लूटने' निकल पड़ते थे। अक्सर पतंग या तो उलझे हुए तारों में उलझ जाती थी या मोहल्ले की सबसे 'खूँखार आंटी' की छत पर पहुँच जाती थी। तब अपनी क्यूट शक्ल का फ़ायदा उठाकर एक दो पतंग तो बटोर ही ली जाती थी।
कई बार पतंग गली में झूमती आती थी और अगर अपने हाथ नही लगे तो झड़प में फाड़ दी जाती थी। पतंग लूटने के बाद का पल बहुत खुशनुमा होता था...होंठो के कोने आँखों की तरफ़ तेजी से भागते थे,दो गढ्डे पड़ जाते थे गालों में और हवा हाथ के थपेड़े खाती थी,बेहद ख़ुशी मिलती थी कुछ ऐसी चीज़ पाने के बाद जिसके पीछे सब भाग रहे हों। पतंग का पीछा करके उसे सफलतापूर्वक लूटना मन को बहुत लुभाता था....'काटी बो' सुनते ही दौड़ जाता था पतंग लूटने,पतंग पकड़ भी ली जाती थी मगर पतंग उड़ानी नही आती थी...न ही कभी आई, क्योंकि प्रेम हमेशा क्रिकेट से ही रहा।
आज भी ज़िन्दगी का वो हिस्सा वैसा ही है....किसी की कटी पतंग का पीछा कर रहा हूँ पर पतंग उड़ानी नही आती। पतंग लूट लेने के बाद क्या करूँगा पता नही...शायद सब पीछे हैं पतंग के इसलिए मै भी हूँ....ये बात मै जानता हूँ मगर समझना नही चाहता शायद...और पतंग उड़ाना सीखना भी फ़िज़ूल लगता है। शक्ल अब भी क्यूट है... अक्ल थोड़ी ज़्यादा है शायद!!